परिवार है, तो समस्याएं हैं और समस्याएं हैं, तो चिंताएं हैं। चिंता को चिता समान बताया गया है, लेकिन वर्तमान में अधिकांश लोगों की जीवन शैली ऐसी हो गई है कि चिंता दैनिक जीवन का अभिन्न अंग बन गई है। अधिकांश परिवारों में छोटी-छोटी बातों पर भारी लड़ाई, झगड़े, तनाव देखने को मिल रहा है। कहीं सास बहू की लड़ाई हो रही है, तो कहीं बच्चे घरों से भाग रहे हैं। छोटी-छोटी बातों पर परिवार टूट रहे हैं, अपने बिछड़ रहे हैं।
आजकल तो टीवी के धारावाहिकों में भी बस यही खींचतान छाई हुई है और दुख की बात यह है कि यही कार्यक्रम सबके मनपसंद भी बने हुए हैं। इसका कारण यह है कि परिवारों में सामंजस्य और सहनशीलता कम होती जा रही है। अधिकांश लोग हर बात में एक दूसरे की कमी निकालने में ही लगे हुए हैं। वह परिवार, जो मिल जुल कर रहने के लिए बसाया गया था, अब लोगों के लिए जी का जंजाल बनता जा रहा है। इसका एक नकारात्मक प्रभाव यह है कि नई पीढ़ी परिवार बसाने से बच रही है।
नकारात्मकता का इलाज क्या है? अब प्रश्न यह उठता है कि परिवारों की आत्मा में बस गई इस नकारात्मकता का इलाज क्या है? ऐसा कौन सा उपाय किया जाए कि परिवारों का यह बिखराव रूक जाए और आपस में वही भाईचारा और प्रेेम एक बार फिर जाग उठे, जो किसी भी परिवार का मूल आधार होता है। समाधान बहुत ही छोटा और सीधा सादा सा है- सामंजस्य और सहनशीलता। कैसे, एक प्यारी सी कथा के माध्यम से समझते हैं।
लड़का किसी भी काम में निपुण नहीं था...
किसी शहर में एक साधु महाराज रहा करते थे। उन्होंने अपने दैनिक कार्यों में सहयोग के लिए एक लड़के को रखा हुआ था। लड़का किसी भी काम में निपुण नहीं था, पर महाराज की आवश्यकता के अनुरूप कार्य पूरी भक्ति से करता था। साधु महाराज के सभी कार्यों में सहयोग के साथ ही साथ वह उनके लिए रसोई भी बनाया करता था। बस, यही वह बिंदु था, जिस पर साधु महाराज हमेशा कुपित हो उठते थे। कारण बड़ा ही साधारण था कि भोजन में नमक मिर्च कभी कम हो जाती थी, तो कभी अधिक। साधु के मन में यह बात बैठ गई थी कि वह लड़का जान बूझकर उन्हें परेशान करने के लिए भोजन स्वादिष्ट नहीं बनाता है।
साधु महाराज ने उसके लिए भोजन निकाला …
एक बार साधु महाराज को दूसरे गांव में कुछ काम पड़ा। उन्होंने उस लड़के को काम पूरा करने भेजा। उसे वापस आने में ज्यादा समय लगने वाला था, सो महाराज उस दिन खुद ही खाना बनाने बैठ गए। उन्होंने पूरे मनोयोग से स्वादिष्ट भोजन बनाया और खूब मन से खाया। दोपहर में जब वह लड़का काम पूरा करके लौटा, तो साधु महाराज ने उसके लिए भोजन निकाला। भोजन परोसते समय उनके मन में खोट आ गया और उन्होंने लड़के को परेशान करने के लिए सब्जी में नमक मिर्च दोगुना कर दिया। लड़के को थाली देकर महाराज पुस्तक पढ़ने बैठ गए, पर मन उधर ही लगा हुआ था कि अब यह शिकायत करे, तो मैं इसे खरी खोटी सुना दूं।
आपका प्रेम देखूं या भोजन में कमी निकालूं?
उधर वह लड़का एक शब्द नहीं बोला और आनंद से भोजन करता रहा। अब महाराज से रहा नहीं गया और वह बोल पड़े- क्यों रे गोविंद, भोजन कैसा बना है? सुनकर वह बोला कि आनंद आ गया गुरुजी। इतनी भूख लगी थी और आज तो मुझे बिना बनाए भोजन मिल गया। साधु हैरान होकर बोले कि नमक मिर्च अधिक नहीं लग रही क्या? इस पर वह बोला कि महाराज, उससे क्या हो गया। नमक मिर्च अगर अधिक है, तो रोटी में कम लगाकर खा लूंगा। साधु बोले कि अगर बहुत कम होता तो? वह हंसकर बोला कि महाराज, मैं थोड़ा नमक मिर्च मिला लेता। आपने मेरे लिए भोजन बनाकर रखा, मुझे बिना बनाए पेट भर भोजन मिल गया। मैं इसमें आपका प्रेम देखूं या भोजन में कमी निकालूं? आपके प्रेम से मेरा मन तृप्त हो गया।
जहां कमी है, थोड़ा मिला दें, जहां अधिक है, थोड़ा कम कर लें
लड़के की बात सुनकर साधु की आंख में आंसू आ गए। एक छोटे से लड़के ने सीधी सादी भाषा में उन्हें वह बात सिखा दी, जो बड़े बड़े धर्मग्रंथ ना सिखा पाए। बस यही परिवारों में शांति का मूल मंत्र है। जहां कमी है, थोड़ा मिला दें, जहां अधिक है, थोड़ा कम कर लें। थोड़ा सा सामंजस्य ही तो बैठाना है, थोड़ा सा सहन ही तो करना है। यदि इतनी सी मेहनत आपके परिवार को सुख से भर सकती है, तो इसे अपनाने में क्या हानि है? विचार कीजिए और सामंजस्य व सहनशीलता को अपने जीवन का हिस्सा बनाइए।