कुछ ने संभाल रखा है मैदान, अधिकांश हुए गायब
इंदौर। कब आओगे-कब आओगे जिस्म से जान जुदा होगी क्या तब आओगे? महामारी के दौर में जनता की सेवा का बहाना लेकर कुर्सी पर बैठने वाले नेता कहां है? राजनीति चमकाकर रंगीन से धवले कुर्ते पजामे में आकर अधिकतर वोट बटोरने के बाद कहां चले गए? क्या इनका राजधर्म यही सब सिखाता है? सत्ता तो लोकतंत्र में इन्हें लोगों ने थमा दी, लेकिन वही जान बचाकर इधर-उधर भाग रहे हैं। हालांकि प्रमुख दलों के कुछ नेताओं ने संकट के इस काल में जरूर मैदान संभाल रखा है, लेकिन अधिकांश स्थानीय नेता तो गायब ही हैं। वहीं बात करें पार्षदों की तो वे जनता से ज्यादा खुद की सुरक्षा में लगे हैं।
इन्हें जनता ने इसलिए चुना था कि वह महामारी या अन्य आपदा के समय अपने क्षेत्र की रणनीति बनाएं। उसे सरकार तक पहुंचाएं। सेवा का अधिकार जनता से लेने वाले अब राजा बन गए। लोग जान बचाने के लिए ऑक्सीजन और दवाओं के लिए उनसे हाथ जोड़कर मिन्नतें कर रहे हैं। नेता है कि उनकी तरफ ध्यान ही नहीं देते। लोगों को बचाने की रणनीति शासन और प्रशासन धरातल पर उतारती। यह पूरा सिस्टम सत्ता में बैठे या जनता के द्वारा बैठाए गए नेताओं को संचालित करना था।
इस मकसद में क्या कोई जनप्रतिनिधि कामयाब नजर आ रहा है? जिले के हर क्षेत्र में लोग परेशान नजर आ रहे हैं। अपनों को लगातार खोते जा रहे हैं। यहां कोरोना न तो कफ्र्यू ढंग से लागू हो पा रहा है, ना ही बीमारों के उपचार की उचित व्यवस्था है।
बड़ा सवाल यह भी है कि जनप्रतिनिधि को यदि चुनकर घर ही बैठ जाना था, तो फिर भी राजनीति को समाजसेवा का फार्मूला बनाकर किस मकसद से इस पेशे में उतरे थे? क्या यह सिस्टम भी घर चलाने के लिए अपनाया जा रहा है! यदि ऐसा है तो इन नेताओं द्वारा एक तरह से लोकतंत्र का गला ही घोटा जा रहा है!
जिले में कोई भी कुछ नेताओं को छोड़ दिया पक्ष या विपक्ष का नेता मैदान में लोगों की सेवा करने के लिए नहीं उतरा, जबकि चुनाव के समय सैकड़ों नेता मतदाताओं द्वार पर नजर आते हैं। जनता बीमारों की मदद के लिए समाजसेवियों का मुंह ताकते रहे। ऐसा सिस्टम यदि है तो लोकतंत्र की परिभाषा बदल देनी चाहिए। जिले में भी इस तरह का माहौल पिछले डेढ़ साल से साफ दिख रहा है। सरकार टीम बना रही है, लेकिन क्या वे ईमानदारी से काम कर रहे हैं या फिर प्रशासन से काम करवा पा रहे हैं? क्या जिन्हें जिम्मेदारी सौंपी गई है, वे फ्री हैंड हैं। यदि है तो उन्होंने क्या किया?
विपक्ष वाले भी एक दो को छोड़ दिया जाए तो अधिकांश चुप क्यों है? इन्होंने भी नेतागिरी का पेशा अपनाया है, तो वे यह क्यों सोच रहे हैं कि कुर्सी होती तो ऐसा करते या वैसा करते? इन्हें अगर सेवा का जज्बा लेकर आगे बढऩा है, तो फिर कोरोना महामारी के समय से बड़ा अवसर और कौन सा मिलता? यदि इस वक्त वे जनता के काम नहीं आए तो कुर्सी पर बैठने के बाद भला कैसे उनके दुख दर्द को समझ सकेंगे?
राजनीति किएलिए करते हैं
माथे पर निकाय चुनाव के साथ लोकसभा का उपचुनाव भी है! यह नेता उस वक्त मतदाताओं के पावों में बिछ जाएंगे। उनकी सेवा के लिए हाथ जोड़कर आधे झुक जाएंगे। कुछ तो मतदाताओं के पैरों में दंडवत भी कर लेंगे, लेकिन आज जरूरत के समय ना सत्ता वाले काम आ रहे हैं और ना ही विपक्ष वाले लोगों के लिए सरकार से सुविधाएं दिलाने की कोशिश कर रहे हैं। ऐसा है तो यह राजनीति किस लिए करते हैं? जान बची लाखों पाए, वाली कहावत चरितार्थ कर रहे हैं।
निश्चिंत हैं, हमारा कुछ नहीं होगा
मतदाता भी भोला है वह जल्द ही यह भी भूल जाएगा कि उसके परिजन बेमौत मौत के शिकार हो गए। उसे नहीं पता कि हम इतने विकसित होकर यह नियम बना चुके हैं कि उपचार और प्राथमिक चिकित्सा सबके लिए जरूरी है। बिना इसके किसी की मौत सरकार नहीं होने देगी। फिर भी सस्ते में उनकी जान चली गई। सिस्टम बनाने वाली सरकारी सरकारें निर्देश देती रही और प्रशासन डॉक्टरों को लेकर बैठक पर बैठक में करते रहे। नेताओं को भी यह सब पता है, इसलिए वे निश्चिंत है कि हमारा कुछ नहीं होगा। फिर से चुन लिए जाएंगे। ऐसे में जिले समेत हमारा देश कब पूर्ण रूप से विकसित होगा। पहले तो मतदाताओं के मानसिक विकास को डिवेलप करने की जरूरत है।
DGR विशेष
मतदाताओं के चरणों में दंडवत करने वाले महामारी में कहां गए?

- 08 May 2021