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चिंतन और संवाद

मोरारी बापू : व्यासपीठ से अक्सर कहा जाता है जहां तक हो सके मौन रहना...

  • 13 Feb 2021

व्यासपीठ से अक्सर कहा जाता है जहां तक हो सके मौन रहना। मौन ऐसा कि जिसमें किसी परम तत्व की स्मृति बनी रहे। ये अभ्यास से आता है। जीवन में थोड़ा मौन रहना सीखें। चौबीस घंटे में एक घंटा या फिर सप्ताह में एक दिन। साल में कुछ दिन या फिर हमारा जन्मदिन आए तो जितनी हमारी उम्र हो, उतने घंटे मौन रखें। शुरूआत में मौन थोड़ा तंग करेगा लेकिन अभ्यास से मौन भीतर के साथ एक संवाद रचने लगता है। 
मुझे लगता है मनुष्य जाति को छोड़कर सृष्टि के सभी जीव, सभी विभाग बहुधा मौन हैं। आकाश मौन है, सरिता मौन है, समंदर मौन है, पृथ्वी मौन है, वायु मौन है। पक्षी बहुत कम बोलते हैं। पशु भी कम बोलते हैं। संगीत के हर साज मौन हैं। बिना छेड़े नहीं बोलते। पूरा जगत मौन है, बस मानव जाति बहुत बोलती है। इसके फायदे भी हैं और नुकसान भी। एक शेर है- 
हजार आफतों से बचे रहते हैं वो... जो सुनते जियादा हैं, कम बोलते हैं। शायर कहता है कम बोलने वाले लोग परेशानियों से बचे रहते हैं। मेरी नजर में मौन रहने से दो फायदे तो तत्क्षण होते हैं। एक, व्यक्ति से झूठ नहीं बोला जाता और दूसरा, वो किसी की निंदा नहीं कर सकता। मजबूरी ही सही मगर हम सत्य का पालन करने लगते हैं। अक्सर लोग कहते हैं कि मौन रहने की क्षमता तो आ गई है मगर मुसकुरा नहीं पाते। मेरा कहना है कि जितना हो सके मौन रहो मगर मौन मुसकुरता हुआ होना चाहिए। मुंह चिढ़ाए मौन रहना कई समस्या पैदा कर सकता है। मेरी बात अगर आप तक पहुंचे तो कहूं। आपका मौन हो और पास आकर बच्चा आकर मुसकुराए, वो बोलना चाहे तो बोल पड़ो। तुम्हारा मौन नहीं टूटेगा। मुसकुराहट के साथ मौन आपको सरल-तरल कर देगा। 
कई लोग कहते हैं कि बुद्धपुरुषों का बोलना भी समझ नहीं आता तो उनका मौन कैसे समझ आएगा? हमें क्या करना चाहिए? मैं निवेदन करूं कि समझने की जरूरत क्या है? चेष्टा ही मत करो वरना उलझ जाओगे। मौन को समझो मत, सिर्फ उसका आनंद लो। मोर नाच रहा है तो उसमें समझना क्या है, आनंदित हो जाओ। कोयल की कूह-कूह क्या समझने का विषय है? नदी के कलकल को क्या किसी भाषांतर की जरूरत है? शाम को चांद धीरे धीरे निकलता है, उसे समझने की जरूरत नहीं है। उसे देखना भर ही पर्याप्त है। हवा की सरसराहट समझने में उलझ जाओगे। उसे बस महसूस करो। आनंद लो। एक शेर है- हाले दिल उनको सुनाया न गया.. आंखों को ही जुबां बनाया गया। शब्दों से सब कुछ नहीं कहा जा सकता। सवाल है कि मौन समझने के लिए क्या करना चाहिए। जवाब है कि कुछ नहीं करना चाहिए। बस मौन हो जाना चाहिए। मौन समझने के लिए कोई साधन नहीं है। मूल बात है कि समझने की बात ही छोड़ दो। अपने आप मौन में उतरने लगोगे।
ओशो ने कहा है वाणी से मुक्ति मौन नहीं है, विचारों से मुक्ति मौन है। अच्छी बात है लेकिन गीता ने कहा है कि बोलो या न बोलो, कहीं भी रहो, तुम्हारा मन चौबीस घंटों प्रसादमय है, प्रसन्न है तो वो मौन है। फिर गाओ तो भी मौन और चुप हो जाओ तो भी मौन। मन प्रसन्न है तब नाचो तो भी मौन और कहीं एकांत में बैठ जाओ तो भी मौन। ध्यान देना, कुछ नहीं करने की अवस्था नहीं बल्कि केवल होने की अवस्था का नाम मौन है। गुरु मौन है। विश्वभर के बुद्धपुरुष मौन रहे, मौन हैं और मौन रहेंगे। उनका होना ही बोलना है। व्यक्ति अकेला बैठता है तो विचार ही विचार आते हैं लेकिन यदि किसी बुद्ध पुरुष के सानिध्य में बैठे तो मन की हलचलें समाप्त हो जाती हैं। वो शांति महसूस करने लगता है। 
मौन एक ऐसी साधना है जिसमें किसी भी प्रकार का दासत्व व अहंकार नहीं होता। मौन आत्मनिवेदन है, मौन समर्पण है, मौन कीर्तन है। जहां मौन आया, वहां उपासना आई, वहां भक्ति आई। मौन नव प्रकार की भक्ति है। मौन में श्रवण भक्ति रहती है। जो मौन बैठे हैं, वो श्रवण भक्ति कर रहे हैं। मौन में नाद मुक्त वीणा की आवाज आती है। मौन की साधना भक्ति है। शरीर चुप बैठा है और कोई अंदर गा रहा है। ये कीर्तन भी भक्ति है। मौन एक ऐसी साधना है जिसमें किसी की कृपा से भक्ति आती है। भक्ति प्रेम, करुणा और उपासना का संगम है। भक्ति भाव के इस संगम को प्राप्त करने के लिए मौन सबसे अच्छा माध्यम है। मौन साधन भी है और साध्य भी। उत्तम वाणी भी मौन है। चुप को जो समझ गया, वो समझा हुआ है और जो समझा हुआ है, वो चुप हो गया है। जितना जरूरी हो, उतना ही बोलना चाहिए। यदि बोलना पड़े तो सत्य ही बोलना चाहिए। 
आप मौन रखेंगे तो शुरू-शुरू में बाहरी आवाज बहुत आएंगीं। कारण ये है कि आप चुप हो गए हैं। आप बोल रहे थे तो बाहरी आवाज का हिस्सा थे। अब अकेले हो गए तो बाहरी आवाज आप पर हावी होंगीं। थोड़ा पकने दो मौन। फिर बाहरी आवाज कितनी भी हों, शोर कितना ही हो, मौनी को कोई फर्क नहीं पड़ता। इसके बाद परेशानी शुरू होगी अंदर की आवाज की। अंदर से आवाज प्रकट होती है। भूतकाल की चीखें अंदर से उठने लगती हैं। उन्हें शांत करना मुश्किल है। उसके बाद मौन की एक तीसरी स्थिति आती है कि अंदर की आवाज भी बंद हो जाती है। एक सन्नाटा छा जाता है। रमण महर्षि कहते हैं भाव, विचार शून्य हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में किसी बुद्धपुरुण का हाथ हमारे ऊपर होना बहुत आवश्यक है। उसका होना हमें संतुलित करता है। 
इसके बाद आता है मौन संवाद। आदमी अपने भीतर के साथ निरंतर संवाद करता रहता है। एकांत में आदमी का संवाद भीतर ही चलने लगता है। पूछा जाता है कि क्या बिना शास्त्र अध्ययन के, सिर्फ आत्मसंवाद से कोई बोधि और आनंद को उपलब्ध हो सकता है?  मेरा जवाब है हां। लेकिन आत्मसंवाद कैसे किया जाए, इसकी कुंजी तो किसी से लेनी होगी। वो शास्त्र से भी ली जा सकती है और किसी चलते-फिरते बुद्धपुरुष से भी। 
प्रस्तुति: राज कौशिक 
(नई दुनिया, जागरण और श्री राज कौशिक की फेसबुक वॉल से साभार )