मुझे पूछा है ...2 दिन से पूछा है कि बापू.. आपने कहा कि ईश्वर के सन्मुख रहना.. तो इस सन्मुख का मतलब क्या है ?... शारीरिक है केवल ?...सन्मुख हो जाना.... सन्मुख इसका खुलासा कीजिए ....इसका मतलब क्या ?... कभी कभी रूबरू सन्मुख नहीं हो सकते बापू... तब क्या करना ?...
देखो... रूबरू सन्मुख होना ठीक है ...एक पड़ाव है... लेकिन रूबरू ही सन्मुख का इतना छोटा अर्थ यहां नहीं है ....जो अपने श्रद्धेय हैं.... जो अपने परम है... जो अपनी आत्मा ने उसका वरण कर लिया है ....उसके सुर में अपना सुर मिला लेना यही सन्मुख है....
उससे विमुख सुर ना हो ....
देखो ...यहां विचार का दरवाजा बंद करने का मैं नहीं कहता.... लेकिन पूर्ण शरणागति में विचार बाधा है....
वो भैंस और गाय गिनने जैसा है ...कोई लेना-देना नहीं...
विचार का एक पड़ाव है ....उसके बाद बुद्धि पर...
अपने बुद्ध पुरुष के विचार में विचार मिला देना... हाँ असहयोग प्रकट कर सकते हैं ...लेकिन इतना भी याद रखें शरणागत की अभी बहुत ऊंची पायदान पर हम नहीं पहुंच पाए ....ये भी पक्का है ...
विचार विमुखता भी नहीं ...मेरे गुरु की सोच वो मेरी सोच.... बहुत कठिन है... ये आखिरी है ...जिसके लिए गोस्वामी जी ने एक पंक्ति लिखी है जेहि बिधि प्रभु प्रसन्न मन होहिं ...
तेरा सुर ही मेरा सुर ... तेरा ताल ही मेरा ताल ...तेरा लय ही मेरा लय ...तेरा छंद वही छंद का मैं आश्रय करूं....
आपने कभी अध्यात्म जगत के इन रहस्यों को जाना हो तो समझिए ऐसे शरणागतों में गुरु की शक्ल आने लगती थी... वो गुरु जैसे दिखने लगते थे क्योंकि एक परिवर्तन होता था ....
आजकल आदमी का रूप फिसिकल साइंस ...आज का मेडिकल साइंस... जो मॉडर्न ...अथवा तो एडवांस्ड जो विज्ञान है ...चमड़ी बदल देता है... रूप बदल देता है... माइकल जैक्सन को कहां से कहां कर देता है... ठीक है....
गुरु भी एक बहुत बड़ा नजर के लेजर से ऑपरेशन करता है... जहां चीर फाड़ नहीं होती... आश्रित बैठा हो तो लगे कि ये तो वो है... ये शिष्य नहीं है... ये तो मूल पुरुष है....
तो सन्मुख का मेरा मतलब ...जो मुझे पूछा गया ...इसमें क्या है कि नासमझी ये भी गलत अर्थ करती है कि ये तो बांधने की बात है .....
गुरु बांधे वो अच्छा है ....हम कितने से बंधे हुए हैं सोचो... तो बेटर है वो बांधे ....
अभी तो क्या है कि बंधन वाले हमें बांध रहे हैं.... अच्छा है मुक्त स्वरूप हमें बांधे .....
तेरी परवशता हमारा पुण्य है.... इसलिए तो मैं बहुत पसंद करता हूँ सुर का पद..." भरोसो दृढ इन चरनन्हि केरो "....
हम बिना मोल बिक चुके हैं गोविंद... नि:शुल्क दासिका... गोपी कहती है....
बुद्ध पुरुष के विचार से ...बुद्ध पुरुष की वाणी से... विश्व मंगल के लिए किया गया सहज बुद्ध पुरुष के संकल्प से विमुख नहीं होना ...वही सन्मुखता है....
राज़ी है हम उसीमें जिसमें तेरी रज़ा है.....
ठाकुर जी कहते हैं अयोध्या कांड में ..भरत तुझे और मुझे कोई चिंता नहीं बाप ...हमारे ऊपर दो हैं ...एक इष्ट और एक गुरु .....तुझे और मुझे सपने में भी क्लेश नहीं होना चाहिए ....
एक वस्तु याद रखना.. छोटा सा सूत्र है ....जिसके मन में अत्यंत द्वेष है उसको ही क्लेश सता सकता है ....बाकी क्लेश की कोई ताकत नहीं द्वेष मुक्त व्यक्ति को सता सके......
एक शिष्य अपने गुरु से द्वेष करे ये विमुखता है... सन्मुखता नहीं....
अब बुद्धि कहेगी क्या हाँ में हाँ मिला दें ?...
इतना तो हमें पक्का होना चाहिए कि जिसकी हाँ में हाँ हम मिला रहे हैं...वो हमारी जिम्मेदारी लेगा... वो हमारा दायित्व निभाएगा....
कब से हम स्वतंत्र बन गए यार ?....
मेरा एक सूत्र है ...ज़रा कठोर भी है.... लेकिन....
या तो गुरु पर सब कुछ छोड़ दो....
या गुरु को छोड़ दो.....
2 ही मार्ग है... तीसरा कोई मार्ग नहीं हम जैसे लोगों के लिए....
( साभार Manas Samwad - FB page)
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