सुन्दर सुजान कृपा निधान अनाथ पर कर प्रीति दीज्यो
सो एक राम अकाम हित निर्बानप्रद सम आन को
जाकी कृपा लवलेश ते मतिमंद तुलसीदास हूँ
पायो परम बिश्राम राम समान प्रभु नाही कहूँ
प्रश्न -- गीता का सहज कर्मयोग क्या है ?
कर्म का विज्ञान क्या है ??
कर्म का श्रेष्ठता क्रम क्या है ??
एक प्रयास - बचपन से हम यही सुनते आए थे कि गीता में लिखा है ,कर्म करो , कर्म करो और लोगों से यही सुना था कि गीता में, कान्हा ने कहा है कि कर्म करे जा, फल की इच्छा, मत कर ऐ इंसान, जैसा कर्म करेगा ,वैसा फल देगा भगवान, यह है गीता का ज्ञान, यह है गीता का ज्ञान।
यानी निष्काम कर्म।।
तो क्या निष्काम कर्म वास्तव में संभव है ?
या फिर निष्काम कर्म कि सिर्फ व्याख्याएं होती हैं?
अध्यात्म में चार-पांच साल गुजारने के बाद पता चलता है कि कर्म का विज्ञान क्या है ?
कर्म होता कैसे है ?
कर्म कितने प्रकार का होता है ??
कर्म करने का श्रेठता क्रम क्या है?
और अधिक श्रेष्ठ कर्म पर पहुँचने का तरीका क्या है ??
जैसा संग वैसा विचार, जैसा विचार वैसा मानसिक कर्म, जैसा मानसिक कर्म वैसा ही स्थूल वाणी कर्म, शारीरिक कर्म।
हम लोग जिस दुनिया में जी रहे हैं , यहाँ पर हमारे मन के अंदर , हम लोग, कुसंग के कारण, बहुत सारे मानसिक कुकर्म करते हैं, जिन्हें हम पापकर्म मानते ही नहीं है।। जिन्हें हम कभी सुधारने का प्रयास करते ही नहीं है।
जबकि इस संसार में भी शारीरिक कर्म से ज्यादा कीमत, importance, मानसिक कर्म की है।
उदाहरण - किसी फैक्ट्री में काम करने वाले मजदूर कारीगर, जो शारीरिक मेहनत कर्म बहुत अधिक करता है, उसकी सैलरी कितनी होती है ?? 9 या 10 हजार परंतु उसी फैक्टरी में काम करने वाले जनरल मैनेजर की सैलरी 80- 90 हजार होती है, जबकि वह जनरल मैनेजर शारीरिक मेहनत इतनी नहीं कर रहा है, जितनी की एक मजदूर कर रहा है यानी मानसिक कर्म की कीमत , इंपोर्टेंस बहुत अधिक है, इस संसार मे भी ।।
तो फिर हम लोग अपने मन के अंदर जो मानसिक कुकर्म कर रहे हैं, उसको पाप कर्म, अपराध कर्म क्यों नहीं मानते है?
कभी भी उन मानसिक कुकर्म को सुधारने का प्रयास क्यो नहीं करते है?
सिर्फ दुनिया की नजर में अच्छे होने का अभिनय करते हैं,
इसीलिए अध्यात्म में- हमारी वाणी, हमारी बाहरी क्रिया अच्छी हो जाए, इसे बहुत बड़ी उपलब्धि नहीं माना जाता है।
बल्कि अध्यात्म, पूरा का पूरा केंद्रित है, हमारे मानसिक कर्म को सही करने में।
अत्म का उद्देश्य यही है कि हम अपने मानसिक विचारों को, मानसिक कर्म को सही कर पाए , खुद को सुधार पाएं और यह तभी संभव है जब हम रोज कम से कम एक-दो घंटे कथा श्रवण करें और शरीर से, दुनिया के, घर के , दफ्तर के काम करते हुए , जहां तक संभव हो, मन से भजन, राम नाम को मन में गुनगुनाए।
यह भजन और कथा श्रवण ही हमारे मानसिक कर्मों को ठीक कर पाएगा । नहीं तो यदि यह मानसिक कुकर्म होते रहे तो जिस दिन भी कोई ऐसी परिस्थिति हमें मिली, जब हमारे मन को पता हो कि यह भेद नहीं खुलेगा , दुनिया नहीं जान पाएगी तो उस दिन, अकेले में , वह मानसिक कुकर्म , स्थूल वाणी कर्म में और शारीरिक कुकर्म में बदल ही जाएगा।।
दुनिया की नजर में अच्छा व्यक्ति होना और कान्हा की नजर में अच्छा व्यक्ति होना, दोनो अलग बात है ।
यदि हम कान्हा की नजर में अच्छा व्यक्ति बनने का प्रयास करेंगे, तो वह कान्हा हमारे लिए बहुत कुछ करने को राजी हो जाता है। कान्हा की नजर में खुद को सुधारने की ,अपने मानसिक कर्म को सुधारने की प्रक्रिया को, प्रयास को ही भक्ति कहा गया है ।
कर्म के प्रकार और कर्म की श्रेष्ठता बढ़ने का क्रम भी यही है
1- अज्ञानतावश कर्म
2- आदत वश कर्म
3- ममता वश कर्म या इसी को त्याग कर्म भी कह सकते है
4- कर्तव्यभाव से कर्म यानी सहज कर्म यानी प्रेम भाव से कर्म या गुरु आज्ञावश कर्म या गुरु को , कान्हा को प्रसन्न करने के लिये कर्म
5- निष्काम कर्म
यानी जब तक हमे चौथे नम्बर का कर्म यानी कर्तव्यभाव से कर्म यानी सहज कर्म की प्रैक्टिस , आदत न हो जाय , तब तक निष्काम कर्म की सिर्फ व्याख्या ही होती है
1- अज्ञानता वश कर्म-- हम लोग इस जीवन में जितने भी कर्म करते हैं , उसमें अधिकतर कर्म (99%) अज्ञानतावश कर्म ही होते हैं ।
अज्ञानतावश कर्म यानी झूठे अभिमान का सुख लेने के लिए किया गया कर्म ।
हमारा मन झूठे अभिमान का सुख कहां कहां से लेता है, यह जानने के लिए भी हमें कम से कम चार पांच साल तक कथा श्रवण करना होता है
कथा श्रवण भी एक ऐसे इंसान से , जिसकी आंख में कृष्ण प्रेम के आंसू हो , क्योंकि जब कोई इंसान कृष्ण प्रेम में, भाव दशा में डूब जाता है, तब वह इंसान नहीं बोल रहा होता है , बल्कि वह तो कृष्ण प्रेम में , कृष्ण की याद में डूब चुका है
उस समय उसकी वाणी से जो कुछ भी शब्द निकलते हैं , वह शब्द कृष्ण बोल रहा होता है, इसलिए ऐसे शब्दों को सुनना ही ,अध्यात्म जगत में कथा श्रवण माना जाता है
जिस दुनिया में हम लोग जी रहे हैं , यहां पर किसी ने भी हमें जीवन जीने की सही कला कभी सिखाई ही नहीं है,
जीवन जीने की सही कला हमें , ऐसा ही कथा श्रवण सिखा सकता है, जिस कथा श्रवण की चर्चा हमने अभी की है
जैसे-जैसे हमारी उम्र बढ़ती है , वैसे-वैसे इस दुनिया के संग , कुसंग के कारण हमारी दोषदर्शन की , आक्षेप लगाने की, आरोप लगाने की , खुद को सही साबित करने की, वृति , आदत बढ़ती चली जाती है और इन्हीं व्रतियों के कारण , हमारा मन 4 शर्तें पूरी करने वाले झूठे अभिमान के सुख में डूबता चला जाता है।
हमारा मन भ्रम के ऐसे जाल में फंस जाता है, जहां से हमें पता ही नहीं चलता कि हम दुखी क्यों हैं ।
क्योंकि झूठे अभिमान का सुख लेने का, हमारा व्यसनी मन , हमें इतने भ्रम कराता है कि सत्य क्या है? ये हमें कभी दिखाई ही नहीं देता है और हम जीवनभर सिर्फ अज्ञानतावश कर्म ही करते रहते हैं
चाहे वह शरीर से हो, वाणी से हो या मन से हो
हमारा मन कैसे कैसे भ्रमों में फंसा है, इसकी कुछ चर्चा हमने पिछले कुछ पोस्टो में करी है और आगे के पोस्ट में भी करते रहेंगे
अज्ञानतावश कर्म से ठीक है कि आदतवश कर्म - जैसे अनजाने में ही हम लोग, पैर आदि हिलाते रहते है
इससे श्रेष्ठ है - ममता वश कर्म
प्रश्न - त्याग कर्म का जनक कौन है ? यानी पहली बार हमसे त्याग कर्म क्यो और कैसे होता है ?
उत्तर - ( विषम परिस्थिति + ममता)
ये दोनों चीजे जब मिल जाती है तो हमारे अंदर त्याग कर्म का जन्म होता है, हमारे परिवार में जब विषम परिस्थिति आती है और हमारी ममता , लगाव जिस व्यक्ति से भी अत्यधिक जुड़ा होता है तो हम उस व्यक्ति की तकलीफ नही देख पाते है, और उस व्यक्ति का कष्ट दूर करने के लिये त्याग कर्म में उतर जाते है, आलस्य का त्याग, अपनी इक्छा का त्याग करके, उस व्यक्ति का कष्ट दूर करने का भरसक प्रयास करते है।
ये त्याग कर्म, ममतावश कर्म करना बहुत जरूरी भी है, कान्हा को पाने के मार्ग में, परन्तु इसी पर रुकना भी नही है, ये एक अवस्था है, मंजिल नही।
( विषम परिस्थिति + ममता ) के कारण , जब एक बार, पहली बार , त्याग कर्म हो जाता है तो फिर उस त्याग कर्म करने का सुख हमारे मन को मिल जाता है, कि हम अपनो के लिये कुछ कर पाए, अपनी इक्छा का त्याग करके, जब अपनो को थोड़ी सी खुशी , राहत , हम दे पाते है तो एक खुशी का, सुख का अनुभव होता है, जिसे सेल्फ सैटिस्फैक्शन का सुख भी कहते है।
इसी त्याग के सुख का अनुभव करके, हमारा मन बार बार त्याग कर्म करने लगता है, और त्याग कर्म की चैन बनती चली जाती है।
ये त्याग कर्म करने का सुख भी 4 शर्ते पूरी करने वाला सुख है
1.रिपीट करने पर सुख की मात्रा कम नही होती है,
2.किसी भी समय ले सकते है
3. कही भी ले सकते है
4. पाप - पुण्य का द्वंद नही है
जो हमने त्याग कर्म किया , उसे हम , कही भी, कभी भी, याद करते है तो हमे एक खुशी , सुख का अनुभव होने लगता है परन्तु इस त्याग कर्म में भी एक समस्या है कि (अपनी इक्छा को काट कर, दुसरो के लिये, अपनो के लिये , कुछ करना बहुत मुश्किल कार्य है, इसलिए हमारा चालाक मन , धीरे धीरे त्याग कर्म कम करता है और त्याग कर्म का दिखावा ज्यादा करने लगता है )
यदि हमारे पास कथा श्रवण, मजबूत भजन नही है तो , समय के साथ साथ, हमारे मन मे एक इक्छा उम्मीद बढ़ती चली जाती है, मजबूत होती जाती है कि जिन लोगो के लिये हमने पैसे वस्तु इक्छा का त्याग किया है, वो लोग हमसे प्यार से, मीठी वाणी बोले, अच्छा प्रसंसा पूर्ण व्यवहार करें, सम्मान दे, परिवार समाज से हमे , अच्छा व्यक्ति होने ही प्रसंसा मिले, क्योकि पैसे वस्तु आलस्य का त्याग करना तो फिर भी आसान है, परन्तु हमारा मन इसके बदले में , त्यागी महान अच्छा व्यक्ति होने की प्रसिद्धि में फँस जाता है।
परिस्थितियों में फँस कर, जिस भी दिन उन लोगो ने हमारे मन के विपरीत कुछ भी कहा, किया, (जिन लोगो के लिये हमने त्याग किया था) तो हमारा मन तुरन्त वाणी मन की हिंसा में उतर जाता है कि भलाई करने का तो जमाना ही नही है, तुम लोगो के लिये हमने ये ये किया, पूरा जीवन जिसके लिये जिया, वही लोग आज हमें , ऐसी बाते सुना रहे है, कोई मेरी बात समझने को राजी नही है, कोई मुझे समझने को राजी नही है।
Result - पूरे घर मे कलह, भयंकर मनमुटाव, द्वेष, नफरत, गलतफयमी का जाल, सभी लोग दुखी परेशान, और सभी लोग आत्म हत्या की कगार पर, घर से भाग जाए या दुनिया से, जिन्दगी नर्क से ज्यादा बत्तर लगने लगती है, और बिना कथा श्रवण, बिना भजन ये होगा ही।
( 28 साल की जिंदगी जीने के बाद ) मैं भी ऐसी ही स्थिति में था, मेरे पूरे परिवार का भी यही हाल था, क्यो कि हमने भी अपने आप को बहुत होशियार, पढ़ा लिखा मान लिया था, और बुद्धिजीवियों के अधूरे वाक्य पर भरोसा कर लिया था कि
गीता में कान्हा ने कहा कि कर्म करो , कर्म करो,
और भृम ये था कि कथा सत्संग, ये सब तो बुढ़ापे में किया जाता है।
28 साल तक, अपनी बुद्धि से, सब करने के बाद, जब पूरा परिवार आत्म हत्या करने की कगार पर खड़ा हो गया तो अपने परिवार को बचाने के लिये हम इस अध्यात्म जगत में आये और निराकार कान्हा ने भी अपनी असीम कृपा करी और एक विचित्र साधु चरित व्यक्ति तक पहुँचा दिया।
कथा श्रवण क्षेत्र में आया तो उस विचित्र साधु के निवेदन ने मेरे पूरे वजूद हो हिला कि
बेटा, कथा श्रवण, भजन की कीमत पर कुछ भी मत करना, त्याग परोपकार सेवा भी नही ...
और ये उनका निवेदन था, करुणा अश्रु सहित, वो जार जार आँसुवो से बोल रहे थे उनके आँसुवो ने , मेरे अंतःकरण में भूचाल ला दिया कि ये बन्दा जो बोल रहा है निस्वार्थ बोल रहा है, और निस्वार्थ करुणा की वाणी ही सत्य होती है।
परन्तु मेरी कुतर्की बुद्धि उसे स्वीकार न करने दे, त्यागी होने के अहंकार में डूबा हुवा मन कबूल न करे , क्योंकि बचपन से हमने जो देखा था, सुना था, पढ़ा था, उस विचित्र साधु चरित व्यक्ति का निवेदन उससे बिल्कुल विपरीत लग रहा था।
बचपन से हमने लोगों से यही सुना पढ़ा कि त्याग करो, त्याग करो, परिवार समाज देश के लिये, अपने लिये तो जानवर कीड़े मकौड़े भी जी लेते हैं, जो दूसरों के लिये अपना जीवन निछावर कर देता है, वही इंसान कहलाता है।
कुछ ऐसा कर जाओ इस दुनियां में कि सालो तक, सदियों तक, घर समाज के लोग हमें याद करे
यानी इस दुनियां में त्याग कर्म सर्वोच्च है, ऐसा ही हमने सुना था, पढ़ा था, परन्तु आज ये कैसा विचित्र प्राणी, विचित्र साधु मिला है, जो त्याग कर्म को बहुत महत्व ही नही दे रहे है ?
मेरे अंदर की बेचैनी, तड़प, दर्द के आँसू , उस विचित्र साधु चरित व्यक्ति की आँखों मे थे , उन्ही जार जार आँसुवो से वो बोले जा रहे थे कि
बेटा, त्याग कर्म, ममतावश कर्म, श्रेष्ठ है ही, परन्तु सर्वश्रेष्ठ नहीं है।
कथा श्रवण , भजन करके, इन त्याग कर्मों को वैराग्य कर्म में बदलना होगा।
अपने परिवार के सदस्यों के आँसू , तकलीफ को देख कर, तू अभी तक उनका कष्ट दूर करने के उद्देश्य से ममतावश कर्म करता आया है, इसे प्रेमवश कर्म में बदलना होगा।
किसी इंसान को खुश करने के उद्देश्य से नहीं, बल्कि अब तुझे कान्हा को प्रसन्न करने के उद्देश्य से कर्म करना होगा।
कथा श्रवण, भजन करते हुये, सहज कर्म करने होंगे।
बिना कथा श्रवण, बिना भजन, हमारा मन हमे बहुत उल्लू, मूर्ख बनाता है, कर्म करता है झूठे अभिमान के सुख के लिये, लोक प्रशंसा के लिये, और हमें भ्रम कराता है कि मैं तो त्याग कर्म कर रहा हुं,
बेटा,
आज तक तूने जो भी जीवन जिया है, अपनी बुद्धि पर भरोसा किया, इस समाज के बुद्धिजीवी लोगो की बातों पर, तर्कों पर भरोसा किया और आज 28 साल की उम्र में, इस अवस्था तक आ गया कि पूरा परिवार आज आत्म हत्या की कगार पर खड़ा है।
सारी इक्छाये काटने के बाद भी, 8 साल की नोकरी करने के बाद, आर्थिक कर्ज भी 8 गुना हो गया, और चीजो को सही करने का समय भी समाप्त हो गया, यदि कर्म method सही होता तो result इतना खराब नही आता
बेटा,
मैं जानता हूं कि आज तू किस अवस्था मे है, सोचने समझने की शक्ति भी जवाब दे गई है तेरी आत्म हत्या के सिवा कोई विकल्प नहीं दिख रहा है।
इतने साल तक, अपनी बुद्धि, समाज के बुद्धिजीवी लोगो की बुद्धि पर भरोसा करके, उस पर जिया है
बेटा,
एक बार, इस अनपढ़ की बात पर भरोसा करके देख (जो हाई स्कूल में तीन बार फेल हुआ है)
सिर्फ एक साल दे दे मुझे, सिर्फ एक साल के लिये , आत्म हत्या के निर्णय को टाल दे, सिर्फ एक साल इस अध्यात्म मार्ग पर, कथा श्रवण, भजन के मार्ग पर चल कर देख, इस प्रेम मार्ग पर चल कर देख।
बेटा,
मेरे पास , मेरे सदगुरू के भजन का भरोसा ही है, ये आँसू ही है, इसी भजन के भरोसे से मैं तुझको इस मार्ग पर चलने की विनती कर रहा हूं।
बेटा,
सिर्फ एक साल, इस प्रेम पर चल के देख, एक साल के बाद अपने अनुभव के आधार पर निर्णय लेना, तुझे फायदा न दिखे, तो बेटा, .....
मेरे गाँव आकर जहर की पुड़िया मुझसे ले जाना, तुझे अपने हाथों से जहर दे कर... ये साधु , आजीवन कारावास के लिये जेल चला जायेगा...
उस दिन की मानसिक मुलाक़ात ने, सिर्फ मेरा ही नहीं बल्कि पूरे परिवार का जीवन मोड़ दिया।
ये अध्यात्म जगत, प्रेम जगत, अच्छे शब्दों की अदाकारी नहीं है, पांडित्य का खेल नहीं है, प्रेम अश्रु का जगत है, और उससे भी ज्यादा असर करते है भयंकर करुणा दर्द के आँसू।
किसी के जीवन को रौशन करने के लिये, कोई साधु अपना कलेजा जलाता है, तब रोशनी होती है, वो भी शीतल प्रकाश .....
इसीलिए सद्गुरु करूणा अनुभव किये हुए समर्पित शिष्य से कोई पूछ लें कि सद्गुरु क्या होता है ?? तुम्हारे सद्गुरु ने क्या किया तुम्हारे लिये ?
तो वो शिष्य, जो किसी भी विषय पर घण्टों बोल सकता है, अपने सदगुरू को याद करके 2 मिनट भी नहीं बोल पाता है, बोलती है तो उसकी प्रेम अश्रु से छलछलाई आँखे ...
कथा रूप कान्हा, सदगुरू रूप कान्हा, का अनुभव पाने के बाद, हमे ये अनुभव हो जाता है कि यदि हम किसी इंसान को इस कथा छेत्र में लाने का प्रयास करते है, और वो व्यक्ति , यदि इससे नही जुड़ पा रहा है तो कमी उस व्यक्ति की नही है, बल्कि हमारी पुकार में, पुकार प्रेम अश्रु में दर्द की कमी है ....हमारे आँसू कम पड़ रहे है ।
( सोशल मीडिया से साभार प्राप्त)
चिंतन और संवाद
सुन्दर सुजान कृपा निधान अनाथ पर कर प्रीति दीज्यो
- 13 Mar 2021