जानें आशापूर्णा देवी के बारे में
प्रेरणा हमेशा शारीरिक युद्ध या लड़ाई में विजय पाने वाले नायक-नायिकाएं ही होते। समाज में चल रही बुराई के खिलाफ खामोश रहकर बहुत कुछ कह जाने वाले व्यक्तित्व भी हीरो ही कहलाते हैं और ऐसी ही एक हीरो रही हैं आशापूर्णा देवी। उनके लिए लेखिका शब्द को भी जेंडर में बांधना गलत ही होगा क्योंकि उनका तो पूरा जीवन ही जेंडर बायस (लैंगिक पक्षपात) के खिलाफ लड़ाई लड़ते हुए बीता और उन्होंने अपनी कलम से इसे आवाज दी। बंगाल की साहित्यिक और सामाजिक पृष्ठभूमि में स्त्रियों के हक में होने वाली क्रांतियों की एक प्रणेता आशापूर्णा देवी भी रहीं। समय काल से परे उनका लिखा आज भी उतना ही प्रासंगिक है और उतना ही सक्षम, जो महिलाओं को असली फेमिनिज्म के मायने सिखाता है।
चाहे कहानियां हों या उपन्यास, आशापूर्णा देवी जी की नायिकाओं ने दुनिया से लड़कर अपने अस्तित्व को साबित किया है। वह भी उस दौर में जब महिलाओं के लिए रसोई की खिड़की और चारदीवारी ही दुनिया हुआ करती थी। आशापूर्णा देवी को भी वही सीमित संसाधन मिले जो उनके दौर की बाकी महिलाओं को नसीब थे लेकिन उन्होंने अपने इरादों, हौसलों और शब्दों से उन्हें असीमित बना डाला।
कुरीतियों के खिलाफ चली कलम
अपने जीवन में आगे बढ़ने और पढ़ने की भूख आशापूर्णा जी को तमाम चुनौतियों के पार ले गई। बाकी घरों की तरह उनके घर में भी लड़कियों को पढ़ने-लिखने की कोई आजादी नहीं थी। उनकी दादी खासतौर पर लड़कियों को स्कूल भेजने के खिलाफ थीं। क्योंकि उनका मानना था कि घर के बाहर एक बुरी दुनिया है जो लड़कियों के लिए तो कतई नहीं बनी है। लेकिन आशापूर्णा देवी ने न केवल अक्षर ज्ञान पाया बल्कि अपने आस पास की महिलाओं की स्थिति को लिख भी बखूबी डाला।
हालांकि चुनिंदा किताबें घर की चारदीवारी में पढ़ने की कुछ छूट थी लेकिन जब अक्षर ज्ञान ही न हो तो पढ़ें कैसे। परन्तु घर के लड़कों के लिए बकायदा प्राइवेट ट्यूशन टीचर की व्यवस्था थी। इसलिए आशापूर्णा देवी बचपन में जब भी अपने भाइयों को पढ़ते देखतीं, उनके साथ चुपके चुपके अभ्यास करती जातीं और इस तरह उन्होंने अक्षर ज्ञान पा लिया। किताबें उन्हें हमेशा से आकर्षित करती थीं। इसकी पृष्ठभूमि में कहीं उनके माँ-पिता भी हो सकते हैं क्योंकि एक वैद्य परिवार में जन्म लेने के बावजूद आशापूर्णा देवी के पिता एक कलाकार थे और उनकी माँ एक आजाद ख्याल परिवार की बेटी थीं व उनको पढ़ने का बहुत शौक था। उन्होंने यह शौक अपनी सब पुत्रियों तक पहुंचाया लेकिन इसे जितनी ऊंचाई आशापूर्णा देवी ने दी उतना और कोई नहीं कर पाया।
स्त्री मन की दबी हुई पीड़ा को उकेरती लेखनी
आशापूर्णा देवी को पढ़ने की और स्वतन्त्रता तब मिली जब उनके पिता जगह की कमी की वजह से अपने संयुक्त परिवार से अलग हो एक बड़े घर में रहने चले गए। यहाँ अब माँ सहित सभी लड़कियों के लिए पुस्तकों व पत्रिकाओं की पर्याप्त खेप आने लगी। लेकिन चुनौतियाँ अब भी खत्म नहीं हुई थीं। जो सुविधाएँ थीं वो घर के भीतर थीं, बाहर जाकर पढ़ने और सीखने पर अब भी पहरा था। इसके बावजूद किताबों को अपना सच्चा दोस्त बनाकर आशापूर्ण जी ने दुनिया जहान का ज्ञान पाना शुरू कर दिया था और मात्र 13 साल की उम्र में उन्होंने एक कविता लिखकर चुपके से बच्चों की एक पत्रिका को भेज दी।
कविता का शीर्षक था-बाइरेर डाक यानी सामान्य भाषा में समझें तो बाहर की दुनिया के संकेत। कविता न केवल छपी बल्कि सम्पादक ने आशापूर्णा देवी से आग्रह किया कि वे और लिखें। बस यहाँ से लेखक आशापूर्णा देवी का रचनात्मक सफर शुरू हो गया।
क्रांतिकारी स्त्री पात्र
मात्र 15 वर्ष की आयु में आशापूर्णा देवी का विवाह हो गया लेकिन पति ने उनके लिखने-पढ़ने को लेकर समर्थन दिया और उन्होंने लिखना जारी रखा। शुरूआती ज्यादातर पुस्तकें बच्चों के लिए थीं। करीब 27 वर्ष की उम्र में 1936 में उन्होंने पहली कहानी वयस्क पाठकों के लिए लिखी पत्नी ओ प्रेयोशी जो कि आनंद बाजार पत्रिका में छपी और इसके बाद आया उनका पहला उपन्यास प्रेम ओ प्रोयोजन। उनके उपन्यासों, कहानियों के स्त्री पात्रों की पीड़ा और सामाजिक रूप से स्त्रियों के लिए बनाई गई बेड़ियों का सच उनके क्रन्तिकारी स्वभाव का परिचायक थी जिसने उस दौर के पुरुषसत्तावादी सोच रखने वालों को चौंका और डरा दिया था।
मन में वे भी जानते थे कि आशापूर्णा देवी कड़वा सच लिख रही थीं लेकिन इस सच को खुलेआम स्वीकार करने का न तो किसी में साहस था न ही इसका अनुसरण करने की हिम्मत। इसके बावजूद आशापूर्णा देवी महिलाओं के लिए सशक्तिकरण और अपने अस्तित्व की पहचान से जुड़ने का माध्यम बनीं। उनकी सबसे चर्चित पुस्तक श्रृंखला (तीन भागों में- प्रथम प्रतिश्रुति, स्वर्णलता व बकुल कथा) तीन पीढ़ियों की अनूठी, बेहद सुंदर और सार्थक कहानी है। जो पाठकों को महिलाओं के जीवन में पीढ़ी दर पीढ़ी आये परिवर्तनों से भी रूबरू करवाती है।
इसके अलावा उन्होंने करीब तीस से अधिक उपन्यास, अनेक कविताएं और कहानियां लिखीं जो आज भी प्रासंगिक हैं और रचनात्मकता का अद्भुत उदाहरण हैं। ज्ञानपीठ और पद्मश्री से सम्मानित इस विदुषी महिला ने करीब 86 वर्ष की आयु में 1995 में इस दुनिया को अलविदा कहा लेकिन उनका लिखा एक-एक शब्द आज भी उनके साहसिक और क्रांतिकारी लेखन का सशक्त हस्ताक्षर है।
साभार अमंर उजाला
विविध क्षेत्र
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- 26 Aug 2022