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बात मुद्दे की

कुछ कहता है यह ठेला... क्या कहता है यह ठेला...

  • 07 Jun 2022

"अपनों ने ही मारा जब यों तानों का ढेला है...
 तब सरकार बनी बद से बदतर हाथ ठेला है... "
@एल एन उग्र
वे शिवराज हैं... वे स्वयं हैं... क्या वह शंभू है.. उनका राज है...वे सिंह हैं... यानी कि चौहान भी हैं...सीधे अर्थ में यूँ समझे... "शिव" के "राज "में "सिंह"सा "चौहान" है...l
फिर किसकी सुनना और किसकी मानना... किस की हिम्मत जो शिव की ना सुने... और फिर किसकी हिम्मत जो शिव को सुना दे... वह सब की फाइल निपटा दे...कईयों की फाइल निपटा ई भी है... और यह भी दिल्ली वाले की तरह... किसी के बस की नहीं है... जो कर गुजरे कम है... और राजनीति जो करा दे वह भी कम है... पर इन्हें किसी बात का कहां गम है... इन्हें रोक सके किन में दम है...क्योंकि यह तो समय की धार पर एटम बम है... बाकी नेताओं की खाई ज्यादा पानी कम है... विपक्ष में न लड़ने का,न बोलने का दम है... इसलिए शिव कहते हैं...हम तो बस हम हैं... किसी से भी नहीं हम कम हैं...सब के मंसूबों मंसूबों पर फेर सके पानी यह हमारी ही दम है... षड्यंत्र में  काफी दम है... अब सेवा की राजनीति में बिल्कुल नहीं दम है... लज्जा का पानी राजनीति की आंखों में बेहद कम है... इसलिए ठेलों की राजनीति में काफी दम है... वह कह रहे हैं... भोपाल से चलकर इंदौर तक हम ही हम हैं... जो राजनीति में बेहद हल्का पन है... न मर्यादा है मुखिया की... न जनता को सुविधा की...बस चारों और चाटुकारिता है... हैं हैं और लगे हैं आका को खुश करने में... मना रहे हैं काका को... राग दरबारियों ने कहा... चलाओ ठेला... वे निकल पड़े भोपाल इंदौर में लेकर ठेला... और लोग मार रहे हैं तानों का ढेला...और अच्छा लगाया राजनीति में खिलौनों का खेला... दुनिया को समझ रहे हैं मेला... गजब है शिव के खिलौना  का खेला...मच गया चारों ओर फोटो छपने का रेला... निकले थे लेकर ठेला... ट्रकों से  मिला खिलौनों का खेला... मिला खूब चेकों का रेला... खूब लगाया राजनीति का मेला... हर कोई बन रहा है मामा का चेला... बस चलने दो रेलम रेला..  ध्यान बताओ  जनता का... चुनाव आए तो भाव कम करो पेट्रोल का... माहौल बनाओ गंदी राजनीति का... कुछ तो चलन चलाओ लज्जा का...सब जायज है राजनीति में...शाम दाम दंड भेद... जनता को आ गई समझ राजनीति की... तो करते रहोगे व्यक्त खेद ही खेद...फिर चिड़िया चुग जाएगी खेत... राजनीति को करो समवेत... मुट्ठी  से फिसल जाएगी रेत... फिर गाते रहना...
अजीब दास्तां है ये...
न वो समझ सके ना हम...
 कहां शुरु कहां खत्म...
 राजनीति की मंजिलें हैं ये...
न वो समझ सके ना हम...!