इंदौर। टंट्या भील विश्वास के पर्याय बन गए थे। जनजाति समाजबंधु जब भी संकट के समय उन्हें याद करते थे, वे अवश्य वहां पहुंच कर उनकी मदद करते थे। भील जाति की परंपरा में संघर्ष और परोपकार नैसर्गिक गुण है जो आज भी निभाया जा रहा है।
यह बात डॉ. आंबेडकर विवि में आयोजित वेबिनार कार्यक्रम में अतिथि लक्ष्मीनारायण पयोधी ने कही। उन्होंने कहा कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के वीर योद्घा टंट्या भील ने अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई में अपने प्राणों की आहुति दी। महान योद्घा टंट्या को उनके ही सहयोगी गणपत ने राखी के बहाने भावनात्मक रिश्ते के जाल में फंसाकर 11 अगस्त 1879 को धोखे से अपने ही घर में पकड़ाया था। जंजीरों में जकड़े इस शेर को 26 सितंबर 1879 को जबलपुर के डिप्टी कमिश्नर के सामने प्रस्तुत किया गया और 4 दिसंबर 1879 को फांसी की सजा दी गई। उन्होंने कहा कि वन में शरण के लिए आए सैकड़ों स्वतंत्रता सेनानियों के वे आश्रयदाता बन गए थे। टंट्या का वास्तविक उद्देश्य लूटमार नहीं बल्कि शोषकों को दंडित करते हुए अंग्रेज शासन को कमजोर करना था। यही उनकी युद्घनीति थी। कुलपति प्रो. आशा शुक्ला ने कहा कि वीर सेनानी टंट्या भील ने एक राष्ट्र भक्त एवं स्वतंत्रता सेनानी के रूप में योगदान दिया। प्रो. शैलेंद्रकुमार शर्मा ने भी अपने विचार रखे। वसंत निर्गुने ने कहा कि टंट्या भील निरक्षर थे। उन्होंने कभी भी स्कूल का मुंह नहीं देखा था तब इतनी बड़ी चेतना का जागृत हो जाना यह कैसे संभव हुआ। उन्होंने कहा कि ऐसी चेतना के लिए न तो अक्षर की आवश्यकता, न शब्द की आवश्यकता होती है यह चेतना समाज व समाज के व्यवहार पर निर्भर करती है।
इंदौर
भील जाति की परंपरा में संघर्ष और परोपकार नैसर्गिक गुण है -पयोधी
- 09 Dec 2021