इंदौर। मुनिराज श्री ऋषभरत्नविजयजी ने समझाया कि, जीव भवों में भटक रहा है परंतु भवों की थाह नहीं मिल रही है। जैसे पाताल की गहराई को हम नहीं देख पाते हैं वैसे ही हम अपने पूर्व भवों के अंत को नहीं देख पा रहे हैं क्योंकि वे अनंत हैं असंख्य नहीं। भवों का अंत तभी आएगा जब अपने पर लगे कर्मों/दोषों के जाल की सफाई धर्म साधना से करें। यह साधना कई प्रकार की होती है उसमें से एक है भक्ति जिसके भी कई प्रकार हैं। भक्ति दिखावटी न हो बल्कि यथार्थता में हो वह ऐसी न हो जैसे हाथी के दांत खाने के ओर दिखाने के ओर होता हैं। भक्ति के प्रकारों को हाथी के शरीर के उदाहरण से समझा जा सकता।
विशालता प्रभु भक्ति करने से हाथी के शरीर समान हमारे व्यक्तित्व को विशालता प्राप्त होती है और जीवन उदार एवं विशाल बनता है। कीमती परमात्मा भक्ति करने से हमारी भक्ति हाथी दांत के समान कीमती साबित हो सकती है। नम्रता जैसे हाथी का मस्तक झुका हुआ रहता जो नम्रता की मिसाल है। ठीक इसी तरह प्रभु भक्ति से हममें नम्रता का गुण विकसित होता है। विषय-कषाय की सफाई झ्र हाथी स्नान करके धूल अपने पर ही उड़ाता है परंतु प्रभु भक्ति से स्नान करके हमको विषय-कषाय वापस अपने पर नहीं लाना है। ध्यान से श्रवण झ्र हाथी के कानों की विशालता यह संदेश देती हैं कि ध्यान पूर्वक श्रवण करके प्रभु भक्ति करो। नाक नीची न हो झ्र प्रतिष्ठित व्यक्ति की नाक लंबी कही जाती है अत: जीवन को कभी कलंकित नहीं करना है। क्रियाओं में गुप्तता हाथी का आहार-विहार गुप्त होता है वैसे हमको भी भक्ति में गुप्तता व्यवहार में लाना चाहिये, दिखावा न हो। मस्ती से भक्ति झ्र हाथी अपनी मस्ती से चलता और वह पीछे वालों की परवाह नहीं करता इसी तरह हमको भी प्रभु भक्ति मस्ती से ही करना है, अड़चन कोई भी हो। राजेश जैन युवा ने बताया की जब तक शरीर में प्राण होते हैं तब तक भक्ति में डूब जाना चाहिये। प्रभु भक्ति से तीर्थंकर गोत्र भी बन सकता है।
इंदौर
भक्ति दिखावटी न हो बल्कि यथार्थता में हो :ऋषभरत्नविजयजी
- 03 Oct 2023