श्राद्धकर्म से देवता और पितर तृप्त होते हैं
और श्राद्ध करनेवाले का अंतःकरण भी
तृप्ति-संतुष्टि का अनुभव करता है।
बूढ़े-बुजुर्गों ने हमारी उन्नति के लिए
बहुत कुछ किया है
तो उनकी सद्गति के लिए
हम भी कुछ करेंगे
तो हमारे हृदय में भी तृप्ति-संतुष्टि का अनुभव होगा।
गरुड़ पुराण में महिमा
कुर्वीत समये श्राद्धं कुले कश्चिन्न सीदति।
आयुः पुत्रान् यशः स्वर्गं कीर्तिं पुष्टिं बलं श्रियम्।।
पशून् सौख्यं धनं धान्यं प्राप्नुयात् पितृपूजनात्।
देवकार्यादपि सदा पितृकार्यं विशिष्यते।।
देवताभ्यः पितृणां हि पूर्वमाप्यायनं शुभम्।
"समयानुसार श्राद्ध करने से
कुल में कोई दुःखी नहीं रहता।
पितरों की पूजा करके
मनुष्य आयु, पुत्र, यश, स्वर्ग, कीर्ति, पुष्टि, बल, श्री, पशु, सुख और धन-धान्य प्राप्त करता है।
देवकार्य से भी पितृकार्य का विशेष महत्त्व है।
देवताओं से पहले पितरों को प्रसन्न करना अधिक कल्याणकारी है।
*अमावस्या के दिन
पितृगण वायुरूप में
घर के दरवाजे पर उपस्थित रहते हैं और अपने स्वजनों से
श्राद्ध की अभिलाषा करते हैं
जब तक सूर्यास्त नहीं हो जाता ,तब तक वे भूख-प्यास से व्याकुल होकर वहीं खड़े रहते हैं। सूर्यास्त हो जाने के पश्चातवे निराश होकर दुःखित मन से अपने-अपने लोकों को चले जाते हैं।
*अतः अमावस्या के दिन
प्रयत्नपूर्वक श्राद्ध अवश्य करना चाहिए।*
यदि पितृजनों के
पुत्र तथा बन्धु-बान्धव
उनका श्राद्ध करते हैं
और गया-तीर्थ में जाकर
इस कार्य में प्रवृत्त होते हैं
तो वे उन्हीं पितरों के साथ
ब्रह्मलोक में निवास करने का
अधिकार प्राप्त करते हैं।
उन्हें भूख-प्यास कभी नहीं लगती। इसीलिए विद्वान को प्रयत्नपूर्वक यथाविधि शाकपात से भी
अपने पितरों के लिए
श्राद्ध अवश्य करना चाहिए।*
*भगवान विष्णु गरूड़ से कहते हैं-
जो लोग अपने पितृगण, देवगण,
ब्राह्मण तथा अग्नि की पूजा करते हैं,
वे सभी प्राणियों की अन्तरात्मा में
समाविष्ट मेरी ही पूजा करते हैं।*
शक्ति के अनुसार विधिपूर्वक
श्राद्ध करके मनुष्य ब्रह्मपर्यंत
समस्त चराचर जगत को प्रसन्न कर देता है।
हे आकाशचारिन् गरूड़ !
पिशाच योनि में उत्पन्न हुए पितर
मनुष्यों के द्वारा श्राद्ध में
पृथ्वी पर जो अन्न बिखेरा जाता है
उससे संतृप्त होते हैं।
श्राद्ध में स्नान करने से
भीगे हुए वस्त्रों द्वारा
जो जल पृथ्वी पर गिरता है,
उससे वृक्ष योनि को प्राप्त हुए पितरों की संतुष्टि होती है।
उस समय जो गन्ध तथा जल भूमि पर गिरता है,
उससे देव योनि को प्राप्त पितरों को सुख प्राप्त होता है।
जो पितर अपने कुल से बहिष्कृत हैं,
क्रिया के योग्य नहीं हैं,
संस्कारहीन और विपन्न हैं,
वे सभी श्राद्ध में
विकिरान्न और मार्जन के जल का भक्षण करते हैं।
श्राद्ध में भोजन करने के बाद
आचमन एवं जलपान करने के लिए
ब्राह्मणों द्वारा जो जल ग्रहण किया जाता है,
उस जल से पितरों को संतृप्ति प्राप्त होती है।
जिन्हें पिशाच, कृमि और कीट की योनि मिली है
तथा जिन पितरों को मनुष्य योनि प्राप्त हुई है,
वे सभी पृथ्वी पर श्राद्ध में दिये गये पिण्डों में
प्रयुक्त अन्न की अभिलाषा करते हैं,
उसी से उन्हें संतृप्ति प्राप्त होती है।
इस प्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्यों के द्वारा
विधिपूर्वक श्राद्ध किये जाने पर
जो शुद्ध या अशुद्ध अन्न, जल फेंका जाता है,
उससे उन पितरों की तृप्ति होती है
जिन्होंने अन्य जाति में जाकर जन्म लिया है।
जो मनुष्य अन्यायपूर्वक
अर्जित किये गये पदार्थों के श्राद्ध करते हैं,
उस श्राद्ध से नीच योनियों में
जन्म ग्रहण करने वाले
चाण्डाल पितरों की तृप्ति होती है।
हे पक्षिन् !
इस संसार में श्राद्ध के निमित्त
जो कुछ भी अन्न, धन आदि का दान अपने बन्धु-बान्धवों के द्वारा किया जाता है,
वह सब पितरों को प्राप्त होता है।
अन्न, जल और शाकपात आदि के द्वारा यथासामर्थ्य जो श्राद्ध किया जाता है, वह सब पितरों की तृप्ति का हेतु है।
(गरूड़ पुराण)
श्राद्घ नहीं कर सकते हैं तो...
अगर पंडित से श्राद्ध नहीं करा पाते तो सूर्य नारायण के आगे अपने बगल खुले करके
(दोनों हाथ ऊपर करके) बोलें :*
हे सूर्य नारायण !
मेरे पिता (नाम), अमुक (नाम) का बेटा,
अमुक जाति (नाम), अमुक गोत्र
(अगर जाति, कुल, गोत्र नहीं याद
तो ब्रह्म गोत्र बोल दें) को आप संतुष्ट/सुखी रखें।
इस निमित्त मैं आपको अर्घ्य व भोजन कराता हूँ।”
ऐसा करके आप सूर्य भगवान को अर्घ्य दें और भोग लगाएं।
श्राद्ध पक्ष में रोज भगवद्गीता के सातवें अध्याय का पाठ
और 1 माला द्वादश मंत्र
”ॐ नमो भगवते वासुदेवाय”
और 1 माला
"ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं स्वधादेव्यै स्वाहा"
की करनी चाहिए
और उस पाठ एवं माला का फल नित्य अपने पितृ को अर्पण करना चाहिए।
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